यह जो आर्यावर्त की विचित्र भूमि है
यही तो मेरी जननी है
कहीं ये झरझर रेत सी कही ये दलदल सी सनी है
कहीं पर्वत कोमल हिम के कही पत्थर कठोर से
कहीं लगे शुष्क ये, कहीं अत्यधिक नमी है
पर्वत राज खड़े मुकुट से , हिंद महासागर करे चरणस्पर्श
कहीं हरियाली जंगलों की , कहीं थार की भयंकर गर्मी है
नदियों के मैदान है समतल कहीं है बीहड़ उबड खाबड़
कहीं उष्मित, कहीं शीतलहर सी भरी है
दक्कन के पठार है इसमें उत्तर पूर्व के पहाड भी
यह जो आर्यावर्त की विचित्र भूमि है
थी लोथल की प्राचीन सभ्यता , खड़ा यहाँ अशोक स्तंभ है
यही तो मेरी जननी है
यही तो मेरी जननी है
यही तो मेरी जननी है
कहीं ये झरझर रेत सी कही ये दलदल सी सनी है
कहीं पर्वत कोमल हिम के कही पत्थर कठोर से
कहीं लगे शुष्क ये, कहीं अत्यधिक नमी है
पर्वत राज खड़े मुकुट से , हिंद महासागर करे चरणस्पर्श
कहीं हरियाली जंगलों की , कहीं थार की भयंकर गर्मी है
नदियों के मैदान है समतल कहीं है बीहड़ उबड खाबड़
कहीं उष्मित, कहीं शीतलहर सी भरी है
दक्कन के पठार है इसमें उत्तर पूर्व के पहाड भी
यह जो आर्यावर्त की विचित्र भूमि है
थी लोथल की प्राचीन सभ्यता , खड़ा यहाँ अशोक स्तंभ है
यही तो मेरी जननी है
यही तो मेरी जननी है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें