रविवार, 21 अक्तूबर 2012

काशी जाने की मनोकामना

बचपन में पढ़ते न थे| ऐसा न था कोई मज़बूरी थी, की बाल मजदूरी करते थे| ऐसा भी न था की घर में पढ़ने का माहौल नहीं था| बाबु जी ग्राम प्रधान (मुखिया) थे| उस जमाने में एम ए किया था| कई बच्चे उन से पढ़ कर क्या क्या बन गए थे| कुछेक को तो बाबु जी ने घर पर कर रख पढाया था|

खैर हर कुत्ता काशी जायेगा हडिया कौन ढोएगा| जाने कितनी आत्माए भटकेंगी , मैंने समाज कल्याण में और लोगो कों इस मृत्यु लोक से मुक्ति दिलाने के
लिए हडिया ढोने का जिम्मा उठाया था|

विद्यालय के हिंदी शिक्षक को लगता था कि मुझे दिखा कर बाकी बच्चो को ‘चिराग तले अँधेरा’ का अर्थ समझाने में मेहनत न करनी पड़ेगी| खैर शिक्षक कभी गलत नहीं होते , गलत होती है ये सोच कि महज ८ साल का उम्र काफी है किसी को पुरे जीवन के लिए सफल और असफल करार देने के लिए | खैर इसके लिए भी मैं सपूर्ण शिक्षा प्रणाली को दोषी पता हूँ|

जब बच्चा असफल करार दे दिया जाता है , तो या तो वो पढ़ कर दुबारा पास होने कि कोशिश करता है ताकि एक मीडियोकर जीवन मिल जाये| जो असाधारण होते है वो उठ पड़ते है क्रांति के लिए |

हर क्रांति सफल नहीं होती, अधिकांश जीवन निगल कर ही दम लेती हैं|

अब एक बच्चे की क्रांति क्या होगी , हर कोई भगत तो होता नहीं है , ना हरेक में इतना धैर्य होता है की बिहार की देहातों से निकल कुछ बन पायें | तो हम क्या कर सकते थे राजपूत होने का शौर्य वो भी बाबु साहेब (वीर कुंवर सिंह) के बिहार का कुछ न किये बिना कैसे जायंगे , बिहार के राजपूत की इरादे तो अंग्रेज न डगमगा पायें थे|

खैर मुल्ला की दौड मस्जिद तक, मुंबई चले गए| १०-१५ दिन फांकी मारा, फिर परेशान क्या करें| जो पैसे थे खत्म हो गए , साथ में अकड़ भी|

हजारो साल की राजपूती परंपरा का भी अंत नजर आ रहा था| हो भी क्यों न कुरीतियाँ खत्म होनी ही चाहिए |

आखिर गांव के एक चचा मुंबई में रहते थे| जाके के उनके घर के सामने के चाय के दुकान वाले के यहाँ नौकरी कर ली ताकि वो देखे और घर भिजवा दे| खुद से आते तो आन पे बन जाता| पता नहीं था मुंबई बड़ा व्यस्त शहर है , पति पत्नी महीनों तक नहीं बात कर पाते एक दूसरे से एक छत के नीचे रह भी | खैर १२ साल पे घूरे का भाग्य भी जगता है मेरा २० दिन में ही जग गया| चाचा ने एक दिन मुझे देखा , खुद को स्मार्ट समझा और मुझे वापस भिजवा दिया गया , लोग शाबाशी दे रहे थे , अपने आप को करमचंद समझ रहे थे |

मेरी अकड़ मिट चुकी थी , अक्ल ठिकाने आ गयी थी| सपनों के महासागर एकाएक सुख गया था | जिंदगी के मायने और मूल्य समय के साथ इतने बदल जाते हैं ये पता नहीं था|

मुंबई में एक और सपना टुटा था | हीरो बनने का| बचपन से सिनेमा देखते थे , बाबु जी बड़े आदमी थे , घर में रंगीन टी वी और वी सी आर हुआ करता था , बहुत सिनेमा देखते थे , ऐसा लगता था सब कुछ हीरो ने किया , उसी का, उसी के लिए फिल्म बनाया है , भगवान भी ऐसे ही होते होंगे, हरफनमौला| फाइट, गाना गाना, दौडना , पढाई , खेल कूद , दिखना ऐसे लगते है इतनी बहुमुखी प्रतिभा तों रावन की भी नहीं थी बेचारे के १० ही मुख थे | लेकिन रावन की प्रतिभा से ऊपर थी राम के प्रतिभा , जो वो करते थे वही सही था, बचपन से सुना था , रामानंद सागर ने दिखा भी दिया था | अरुण गोविल साक्षात राम थे , मेरे लिए और १९८७ – ८९ तक टी वी देखने वाले हर उस भारतीय के लिए | फिल्मो में हीरो ही सही होता है , चाहे वो पुलिस हो या चोर , अमीर हो या गरीब , राजा हो या रंक , व्यापारी हो या क्लर्क , सही हीरो ही होता है , बाकी सारे लोग जीते ही उसके लिए, उसके जीवन कों सपोर्ट करने के लिए|

गांव वापस आ चुका था , रामलीला चालु हो गयी थी अब | पूरी कहानी राम के इर्द गिर्द , राम को भगवान बना दिया था| राम को जन्म देने वाले दसरथ और कौशल्या क्या महान न थे| अपनी पत्नी से दूर रह भी भाई भाभी के साथ बनवास जा , राजकुमार हो भी सेवक बने रहे लक्ष्मण हमेशा साइड हीरो ही क्यों रहे| क्या पैदा होने में चंद मिनटों के देरी किस्मत इतना बदल सकती है| अग्नि परीक्षा देकर भी जिंदगी भर दुःख झेलने वाली सीता के गलती तो सिर्फ इतनी ही थी न की वो पुरुष प्रधान समाज में जन्म ले इंसान बनी थी . देवी बन ही आती तो ये दुर्दशा नहीं होती | इतना बड़ा त्याग कर भी उर्मिला कों मिला क्या मेहमान भूमिका, एक फ्रेम भी अकेले का नहीं मिला था उनको| अपनी बहन की बेईज़द्ती के बदला लेने वाला ज्ञानी रावन ने क्या गलत किया था की उसे मेन विलेन का रोल दिया जाये| जिंदगी भर सेवा की , लंका जलाई , सारे मेजर फाईट सीन किये , हनुमान जी फिर भी साइड हीरो वो भी लक्ष्मण के साथ सांझा| २ मिनट देर से पैदा हुए भरत ने तो भाई स्नेह में गद्दी भी न ली , १४ साल तक इंतज़ार किया , फिर भी उनका रोल हमेशा ग्रे शेड में रहा, आज भी है| अगर नाभि में तीर ही मारना था कोई और मार लेता | अगर सीता का अपहरण होने देने वाले राम को इस लिये छोड़ दिया गया क्योंकि वो अंतर्यामी थे , तो क्या कैकियी और मंथरा को इसी बेनिफिट ऑफ डाउट देके नहीं छोड़ा जा सकता , नहीं जनाब उन्हें तो ऐसा बदनाम किया गया कि आज तक किसी का नाम कैकेयी या मंथरा नहीं रखा जाता| भरत जैसे सपूत जन्मने वाली माता की एक गलती ना माफ कर पायें हम, शिशुपाल जैसे दुष्ट की तो १०० भयानक गलतियाँ माफ की थी | यह दोहरा मापदंड क्यों|

आखिर ऐसा क्यों था , केवल इसलिए क्योंकि बाल्मीकि ने कथा में राम को हीरो बना दिया था पहले से ही| शायद यही कारण होगा|

एक दो बार अपनी ये सोच बताई थी मैंने, लोगो ने तब से पागल बोलना चालू कर दिया था , बाबु जी की इज्ज़त कर के मुझे जिन्दा छोड़ दिया गया , आज कल हडिया ढो रहा हूँ, मेरे साथ पढ़ने वाले काशी चले गए, उन्होंने कभी चुभने वाले प्रश्न जो नहीं किये थे | समय से पहले और समाज के ठेकेदारों से विपरीत सोचने की शायद यही सजा है |

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