मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

हुश्ना



जो जैसा दिखता है वैसा होता नही है| बहुत पहले पढ़ा था कही , बार बार याद दिलाया जाता रहा है ,फिर भी दिल है कि मानता ही नही

अच्छे और बुरे लोग मन से होते हैं ,लेकिन हमें उन्हें देखने के लिए समझ चाहिए| जो आती है तजुर्बे से; खुद के और पीढियों के| लेकिन २ मिनट के नूडल और टी२० के इस दौर में किसी के पास इतना वक्त कहाँ होता है| दादा दादी नाना नानी बस रिश्तेदार बन रह गए हैं और विद्यालय बन गया है १०० मीटर दौड, जहाँ सब दौड रहे हैं छोटी छोटी उपलब्धियों के लिए जिनका दीर्घ काल में कोई महत्व भी नही रहने वाला | ऐसे में किसे दिखे मन की खबसूरती, न पीढ़ी को समझी न वो आगे सीखा पायें | खबसूरती का मापदंड ही बदल दिया , भाषा ने भी साथ दिया सीरत और सूरत में थोडा ही फर्क था , लग गए सब सूरत ताड़ने में | जो रही सही कसर थी वो गोरा बनाने वाली क्रीम और फेस वाश , और ऐसी ही नाना प्रकार के चीजों ने कर दिया| जिसे जो मिलता है बेच डालो , आखिर जनता वही है , जो इंसान की सूरत देखती है , तो सूरत ठीक करने वाली क्रीमो का भी बाहरी पैकेजिंग ही देखेगी| चल गयी दूकान ...

प्रेम को देशज में नेह कहा जाता है , बहुत लोगो ने बोला यह अपभ्रंश है , स्नेह से बना है | लेकिन मेरी राय में स्नेह से इस उस का मतलब हटाने पर ही नेह होता है, मतलब | पहले बड़ा आसान था , माँ बाप , भाई बहन , दोस्तों से होता था , बीवी से होता था , २ -३ साल रखने के बाद , घर के गाय बैल घोड़े कुत्ते तोते से भी हो जाता प्यार , उनके रंग रूप पे निर्भर न करता था न | किसान परिवार से हूं , हल से भी होता था , खेतों से भी चाहे वो बाढ़ में डूबे ही क्यों न हो | लेकिन फिर जमाना बाहरी सौंदर्य का आ गया , भीतर से समझने के लिए वक्त नही है , आजकल चावल भी पोलिश कर के बेचे खाए जाते हैं , सब्जियों और फलो पर केमिकल डाले जाते है ताकि बाहर से अच्छे दिखे |

अब प्यार भी ऐसे ही होता है , फोटो से भी होता है , आकृतियों से भी होता है , जीवित इंसान को देख उसकी एक छवि मन में बना ली तो उस छवि से प्यार हो जाता है | उस जीवित इंसान को कभी पता भी न चले तुमारी इस छवि के बारे में, जिंदगी भर | खैर कवि छवि से ही प्यार कर पाते हैं , जीवित उनके नसीब नही होते | दूसरी बात ये है कि जिन्हें जीवित मिल गए वो कभी कवि न बन पाए |

एक वो जमाना था , जब हुश्ना कों पहली बार देखा, उसके अगले दिन ईद थी , दिवाली भी बीते हुए १ दिन ही हुआ था, मुझे तों लगा था दोनों आज ही है , नही भी होती तों इससे ज्यादा रौशनी तो कभी न थी मेरे लिए | सन ६९ , थोड़े दिन पहले गाँधी जी के जन्म शताब्दी मनाया, बहुत देशभक्ति गीत गाए थे , लेकिन आज कुछ और ही चल रहा था मन में , हुश्ना मुझे आराधना के शर्मीला टैगोर और दो रास्ते के मुमताज़ नजर आ रही थी, शायद उनसे भी खूबसूरत | हिम्मत न थी की जा के बात कर पाऊं उससे , कह पाऊं मेरे दिल में जो उफान उठा था | अगले कुछ दिन तक सोते जागते , चलते फिरते हुश्ना की उस छवि से बात करते रहता था , वो अपनी थी , न किसी लोक लिहाज का डर , समय के पाबन्दी , न कोई लड़कियों के नखरे , एक सच्ची दोस्त के तरह हमेशा मुस्कुराते हुए मेरे साथ रहती वो छवि , मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा | कभी कभी असली हुश्ना के दर्शन हो जाते, तभी भी मेरे साथ खड़ी हो कहती , बात को करो अगर नही किया तों ऐसे ही रह जाओगे , मेरी शादी हो जायेगी फिर तो इस छवि से भी खुले मन बात न कर पाओगे | लेकिन कभी हिम्मत न हुई | हुश्ना तो शायद मुझे जानती भी न थी , न मैं उसके बारे में कुछ जान पाया था , तो उसकी छवि भी जो मेरे साथ थी कुछ ऐसी ही बन पाई जो मुझे पसंद थी , लेकिन वो छवि भी अनजान थी हुश्ना से , सिर्फ शक्ल सूरत ही एक थे वो भी उतने जितनी मेरी आँखे देख समझ पाई थी बाकी का चित्रण कल्पना से हुआ था | ७० दिन बीत चुके थे , सन ७० की फ़रवरी आ चुकी थी|

सुना हुश्ना के पिता का तबादला हो गया था , छवि बैठ बैठे मुझे कोस रही थी , मैं नक्कारा हूं ये कह रही थी , ध्यान आया ये छवि कुछ वैसा ही कह रही थी जो मैं खुद सोचता हूं कही अंदर से | ये छवि शायद मेरे मन का ही प्रतिबिम्ब थी हुश्ना की शक्ल ही थी |

खैर हिम्मत जुटी , भोलेबाबा को याद किया , और चल दिया फैसला करने | चारो और बकरे कट रहे थे , आज बकरीद थी | अगर हुश्ना के घर वालो ने देख लिया तो बेटा एक बकरा बच जायेगा, हलाल मैं ही होऊंगा , अगर बाबू (पिता) को मालूम पड़ जाता तो पता नही क्या होता | आखिर हिम्मत जुटा उस घर में पहूँच गया , हुश्ना खड़ी थी , मैं ले दे के अपनी बात एक सांस में कह दी , उसकी चेहरा देख के अंदाजा हुआ मैंने क्या कह दिया , पीछे से उसके अब्बा जान आ गए , मैं खुद को देख लिया था बकरों के लाइन में |

बेटा हरीशंकर तू तो गया बेटा, ह से हरिशंकर को, ह से हुश्ना मिले न मिले , ह से हलाल जरुर होगा आज |

अब्बा जान को देखते ही हुश्ना के आँखों में मेरे प्रति गुस्सा छु हो गया , और आ गयी एक अजीब सा डर और मेरे प्रति सहानुभूति | आखिर बकरीद में काटने वाला बकरा सबसे प्यारा होना ही चाहिए | कुछ ऐसा ही सही लेकिन एक प्रेम का बीज उधर भी पनप चुका था |

अरे तुम डॉक्टर रवि शंकर शर्मा के बेटे हो न , यहाँ क्या कर रहे बेटा आओ मेरे साथ आओ तुमको गोश्त बिरयानी खिलते है , तुमारे पिता जी और मै साथ में पढ़ा करते थे और बहुत अच्छे दोस्त भी है , मैं तुमरे घर भी आता था , फिर मेरा तबादला लखनउ हो गया , अभी २ महीने पहले ही वापस आयें है, याद नही आया तुमको , शायद तुम बहुत छोटे थे , तुम और हुश्ना एक साथ खेला करते थे”, खैर कसाई के चेहरे में से एक चाचा दिखने लगे थे , माँ का खर जिउतिया करना अब सार्थक लग रहा था | याद आया तबादला वाली खबर भी गलत ही थी या फिर पुरानी थी , चलो इस गलत खबर ने हिम्मत तो दी | बेटी हुश्ना जरा अम्मी कों बताओ के शर्मा चाचा का बेटा आया है , हुश्ना प्रेम के भरी अभिव्यक्ति सुनने के बाद मुस्कुराते हुए अंदर जा रही थी , उनकी मुस्कुराते चेहरे की एक झलक, उनकी छवि के साथ के ७० दिन से ज्यादा खूबसूरत थी |

खैर उस दिन गोश्त खाया नही जा रहा था , ऐसा नही की मैं शर्मा जी पूरा शाकाहारी था , लेकिन उस गोश्त में अपनापन लग रहा था , ऐसा जैसे इस बकरे ने जान मुझे बचाने के लिए ही दी हो |

परिवार काफी करीबी थे , सब साथ में बैठ खाना खा रहे थे , चचा जी खुले विचारों के थे , चचा जान दोस्त के बेटे के आने से अपने बचपन के दिन में चले गए थे , चची भी चचा की खुशी में खुश थी , हुश्ना को मेरे प्रेम का अनुभव होने लगा था , सब आत्म विभोर थे , मैं भी |

खैर छवि के जगह जीवित हुश्ना ने लिया था , मैं किसी न किसी बहाने से उनके घर जाने लगा , कभी कभी माँ भी हुश्ना और उसकी अम्मी कों बुला लेती | बहुत समय मिलता था , धीरे धीरे उसने भी एक दिन प्रेम स्वीकृति दे ही दी| मैंने अपने सपनों में कई बार ७ फेरे ले मंगल सूत्र बाँध चुका था , और वो भी अपने सपने में जाने कई बार कबुल है कबुल है कर चुकी थी , स्पेशल मैरेज एक्ट के बारे में पता था , हम दोनों ने एक दिन चुपके से अदालत में शादी कर दी , एक एक चिठ्ठी अपने अपने घर लिख गए|

लेकिन जैसा हमने सोचा था, हुआ उसका ठीक उल्टा, घर वाले समझा बुझा ले आयें , नाराज थे, इसलिए नही के हमने शादी अपनी मर्जी से की , इसलिए क्यों कि अपने माँ बाप को हमने पराया कर दिया था शादी के वक्त|

बात सन ७० जून के थी , समाज हमारे माता पिता जैसा उदार नही था , इसलिए दोनों परिवारों अलग शहर आ बसे थे | मैं भारतीय सेना में सेंकंड लेफ्टिनेंट बहाल हो गया था , हुश्ना बेहद खुश थी , माता पिता , अम्मी अब्बा भी |

आज सन २०१२ में , मैं सेवानिर्वित हुआ हूं भारतीय सेना से मेजर जनरल हरी शंकर शर्मा| आज भी हुश्ना उतनी ही अच्छी लगती है जितनी ६९ की ईद के एक रोज पहले लगी थी| सच्चा प्यार समय से परे होता है| True love is timeless.

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