रविवार, 28 अप्रैल 2013

१९ किलोमीटर वाली घुसपैठ


हाल में ही चीन १९ किलोमीटर अंदर घुस आया है, अजी ‘ठीक है’ हम तो वैसे ही इतने बड़े क्षेत्र से परेशान ही है, कहाँ बिहार, दिल्ली, चंडीगढ़ जैसे असीम घनत्व वाले क्षेत्र और कहाँ ये ना के बराबर जनसँख्या वाले लेह लदाख, जैसलमेर और अरुणाचल , अब कौन करे इतना खर्च, चलो अच्छा है सेना और सीमा सुरक्षा बल के जवानों को भी वापस घर आने के लिए कम दुरी तय करनी पड़ेगी|

जनाब हमारे यहाँ कितने बंगलादेशी देश में घुस जाते हैं फिर हमें मारते भी है तब तो हमें उनके धर्म पे राजनीति करने से फुर्सत नहीं मिलती फिर ये दो चार किलोमीटर उनको दे भी दिये क्या बिगड़ जायेगा इस देश का , थोड़े मासूम ही शायद कम होंगे नोंचने के लिए|

खैर माजी पे गौर फरमाते हैं, जब हम खुद पर गर्व करने में व्यस्त थे, और अपने छूटे बिछड़े राज्यों और प्रदेशों को और पीछे छोड़ते जा रहे थे, तब चीन चुपचाप दुनिया से कट कर , दुनिया से अलग थलग रह पिछड़ा होने की संज्ञा ले आगे आगे बढ़ रहा था| उत्पादन का क्षेत्र हो, इन्फ्रास्त्रचर बनाना या मार्ग यानि देश के कोने कोने तक पहुँचने का माध्यम बनाना| हम सोचते रहे और वो बढते रहे , हम बोलते रहे और वो करते रहे | जिस अरुणाचल और लदाख में आपातकालीन सहायता पहुंचाने में हमें २ से ३ दिन का समय लगेगा और वो भी कच्ची सड़को पर वाहन तोड़ते हुए , बारिश हुई तो कुछ दिन और जोड़ लीजिए , वहीँ चीन ने पक्की सड़क का जाल बिछा के रखा है | अगर २ – ४ बार फेसबुक पर तिरंगे के फोटो को शेयर कर के आप खुद को देशभक्त और मुझे देशद्रोही समझ रहे है तो समझते रहिये, आपकी स्थिति भी उस कबूतर की तरह ही लग रही है जिसने बिल्ली देख आँख मुंद लिया था|

इतिहास पर गर्व करना एक चीज़ और वर्तमान से आँख मुंद लेना दूसरी| शायद ये कटु सत्य कुछ बातों के शेरों को पसंद ना आए, तो शायद एक बार गूगल कर लीजियेगा|

ऐसा नहीं की मैं नकारात्मक हो चुका हूँ, कतई नहीं , मैं आशान्विंत हूँ अभी भी, लेकिन इन चीजों को अनदेखा करने का दुस्साहस नहीं करना चाहता| कभी ना कभी तो हमें सुधरना ही होगा, जब बातें करना कम करेंगे, धर्म, प्रान्त, जाति के नाम बंट बंट अपनी मूल समस्याओं से मुंह फेरना बंद करेंगे| कभी ना कभी तों करना ही होगा अगर इस देश को फिर से गुलाम नहीं बनना दुबारा| और यकीन मानिये आज से ज्यादा उपयुक्त समय फिर ना आएगा|

हर चीज़ पे उत्तेजित हों जाना शायद हमारे खून में है| खून से मेरा अभिप्राय खानदान से नहीं अपितु समूचे देश से है| असल में उत्तेजित होना बड़ा सही तरीका होता है किसी भी आत्मग्लानी से मुक्त होने का| ना कोई पीड़ा ना कोई कसक, पल मात्र में इन सबसे मुक्त होने का आसान सी डगर|

  

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

बस यूँ ही २४

चाँद में तो कई दाग है वहां, जहाँ सूरज की रौशनी नहीं पड़ पाती है
आज धरती है बीच में दोनों के, तो दागदार हो कहीं छुप सा गया है

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

बस यूँ ही २३

कुछ यूँ ही बिना लक्ष्य के दौड़ते रहते है जाने क्यों 
इससे बेहतर तो सदा जिंदगी थमी रहती बस यूँ ही

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

नारी तेरी और होगी कितनी दुर्दशा

नारी तेरी और होगी कितनी दुर्दशा
तु ही तो है मंथरा और तु ही सूर्पनखा

फिर तु ही देवी सीता क्यों कहलाती
अग्नि परीक्षा भी तुझसे ही क्यों मांगी जाती

तु ही कही जाती है खानदान की आन
फिर अपनी सभा में ही होता द्रौपदी क्यों तेरा अपमान

यूँ तो अबला कह दबाई जाती है
क्यों फिर तुझे शक्ति और काली की पदवी दी जाती है

भ्रूण में मारा , जन्म पर गला घोंटा
और तार तार कर लुटा तेरा  बचपन

जवानी में नोंचा और जिन्दा जलाया
और बुढ़ापे में विधवा कह घर से भी भगाया

नारी तेरी यही कहानी है
तु परायी ही पैदा हुई, परायी ही तेरी जिंदगानी है

नारी तु कुलक्षणी तु ही है अभागन
तु ही चंडालन तु ही है डायन

अब भी तु ना समझी और सोचती कि ये दुनिया सुधरेगी
नारी तेरी और होगी कितनी दुर्दशा

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

The Joke with Law



Sanjay Dutt got relief for 4 more weeks! why? weren't people who died in 93 blast too needed some more day to finish many pending work. Within those nanoseconds, when their body were getting teared in infinite parts, their brain must be thinking about their wife, kids & parents. They also must have wished 1 last month to live as last month and complete all pending work. "God Please if you exist, give me 1000 times more pain than this but spare me for 1 month, I need to say my parent how much love them, I need teach my kids few things so that they can live without me, I need to tell my wife I wanted to be there for her, also I want to buy insurance policy which will take care of them when I won't be around." But they were not given...they couldn't have been given. They were not human. Humanity can be only achieved if you have gun in your hand and/or politicians in your pockets.

All the Judgments of Supreme court are as good as law in future and continue to haunt, remember 200 Rs subsidy for Amarnath yatra was justified for giving 50000 Rs subsidy for Haz even for rich and young people who hardly follow rules of Islam after coming back. But Law is bound to misused. Now all terrorist and Goons will be given relief basis this judgment. God knows how many more of us will be blasted, butchered and burned and they will still be human and free!

Photo Courtesy : Google

कल और आज की शिक्षा प्रणाली : एक कुंठित भारतीय की समीक्षा

भारत वर्ष में अधिकांश को अपने वर्तमान से ज्यादा इतिहास पर नाज़ है, कुछ लिखित, कुछ मौखिक, कुछ बस सपनों वाला इतिहास , कही पौराणिक कथाएं कुछ जिनके प्रमाण हैं कुछ जिनके नहीं है तो कुछ बस सुनी सुनाई लोक कथाएं| लेकिन ऐसी कथाओं के साथ मूलभूत समस्या ये है कि कहने वाले उन बातों पे जोर देते हैं जो वो समझ पाते हैं और उनको चबा जाते हैं जिनसे वो इत्तेफ़ाक नहीं रखते|

बिना और समय लिए मैं मूल विषय पर आ जाता हूँ, एक चीज़ जिसका स्मरण तो सबको होगा लेकिन उसकी बात कोई विरले ही करता है| मैं जिस चीज़ की बात कर रहा हूँ वो है शिक्षा प्रणाली| एक समय था जब लोग शिक्षा लेते थे ताकि वो समाज में अच्छे इंसान बने , ज्ञान बांटे, कुछ युद्ध कला और राजपाट में निपुण होने की शिक्षा लेते थे| कुछ ज्ञान, धर्म, राजनीति तथा कूटनीति की शिक्षा लेते थे | कुछ व्यापार चलाने वाले तो कुछ सेवा सम्बन्धी व्यवसायों में निपुण होते थे | कलाकार होते थे जो शिल्पकला , हस्तकला, चित्रकला से लेकर कुम्हारों की मिट्टी से बर्तन बनाने की कला में माहिर बनते थे| हर कोई उन गुणों को सीखता और उनमे कुशलता हासिल करता था| अरस्तु ने सही कहा था “परिवार समाज की प्रथम पाठशाला है’| लोग वही से अच्छे बुरे गुण सीखते हैं, कुछ ऐसे जो हम २-३ साल की उम्र से पहले सीखते हैं और जो ताउम्र हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा रहते है|

जहाँ शिक्षा जरुरत के मुताबिक थी , वही कुछ लोगों का मानना है कि समाज में वर्ण बना कर जातिप्रथा फैलाया गया था| शुरुआत में लोग एक दूसरे के पेशे की इज्ज़त करते थे, और इस पूरी व्यवस्था में कोई समस्या नहीं थी , यूँ तो लोग पुश्तैनी पेशा चुनते थे जिसकी नींव बचपन में ही पड़ जाती थी, लेकिन कोई भी अपने हिसाब से पेशा चुन सकता था| विश्वामित्र जैसे जन्म से क्षत्रिय का राजर्षि और फिर महर्षि बनना और दरभंगा महाराज और रावण जैसे ब्राह्मणों का राजा होना कहीं ना कही ये बात की पुष्टि करता है| मैंने मध्यकालीन भारत से भी उदाहरण दिये क्योंकि कुछ लोग कथाओं में विश्वास नहीं रखते| तो जातिवाद की नींव को पूर्णत प्राचीन भारत के शिक्षा प्रणाली और सामजिक ब्यवस्था पर थोप देना अर्धसत्य होगा अन्याय भी| लेकिन उस समय के प्रणाली के आलोचकों के विचारों को इसमें सम्मिलित न करना भी अनुचित होगा|

मेरा तर्क ये नहीं कि आप इन कथाओं पर विश्वास कीजिये या ना कीजिये, कतई नहीं, वह आपका निजी निर्णय है, अपितु मैं कहना चाहता हूँ की कहीं ना कहीं दूसरों की नक़ल कर कर हमने अपने शिक्षा प्रणाली को बहुत जटिल और अव्यवहारिक बना लिया है| आज भी कभी हम चाणक्य और आर्यभट्ट जैसे विद्धानों का नाम ले ले खुद को सांत्वना देते हैं तो कभी रामानुजम, मेघनाथ सहा, राजा रविवर्मा, टैगोर, सतेन्द्र नाथ बोस और जगदीश चन्द्र बसु जैसे लोगों के उदाहरण दे पुरे भारतीय समाज के विद्वान होने के कथन को सिद्ध करने की बात करते है| समस्या ये भी है कि हमें कुछ लोग की सफलता खुश कर देती है, एक औसत इंसान को सफल कैसे बनाया जाये उस पर ध्यान नहीं देते| अभिप्राय ये है कि हमारी प्रणाली कुछ सिखाने की बजाये परीक्षा लेती है, तेज हो तो आगे आओ नहीं तो गर्त में जाओ| कहीं ना कही ये कमजोरी के लक्षण लगते हैं, पुरे समाज की कमजोरी के लक्षण| सच में हम अपने शिक्षा प्रणाली में इतने विकार ला चुके हैं कि १५- १८ साल के शिक्षा के बाद भी एक युवा कोई सामान्य काम करने के भी लायक नहीं होते हैं उन्हें प्रशिक्षण चाहिए होता है| क्योंकि शिक्षा तो हुई ही नही होती है, होती है तो बस परीक्षा |

दुख तब होता है जब इस महान कहें जाने वाले राष्ट्र के नेताओं को साक्षर और शिक्षित में फर्क तक महसूस नहीं होता| गाँधी कहते थे “अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है और न उसका आरंभ।" यह बात अब कोई याद नहीं रखता| सब परेशान हैं, नक़ल करने में , अमरीका के No child left behind Act 2001 की| कोई मध्यांतर में रोटी की बात करता है , कोई ज्यादा से ज्यादा नामांकन (सिर्फ नामांकन) की, कोई साइकिल की| जी नहीं मैं नकरात्मक नहीं हूँ इन चीजों की भी जरुरत है , लेकिन एक युवा देश(एक देश जहाँ अधिकाँश जनता काम करने के उम्र में हैं) में क्या हमारी जिम्मेदारी ये नहीं, कि हम योजना बनाए के साथ साथ उन्हें कार्यान्वित भी करें|

एक किस्सा याद आ रहा है, थोड़े दिन पहले मैं एक दूकान पे गया वहां मुझे एक ११ साल का बच्चा मिला , शायद कुपोषण का शिकार रहा होगा, क्योंकि अपनी उम्र से कम लग रहा था| उसके माँ बाप नहीं थे, सड़क पे घूमते घूमते एक दिन वो उस दुकान पर गया और काम मांगा, पहले दूकानदार ने ना नुकुर किया फिर उसने उसे अपने घर और दुकान पर छोटे छोटे काम करने के लिए रख लिया| वो लड़का पढ़ता भी है| मैंने दुकानदार, जो कि मेरा स्कूल का सहपाठी और दोस्त है, से पूछा क्या ये सही है , बाल मजदूरी नहीं है ये! उसने बोला अगर मैंने इसे नहीं रखा तो ये रोड पे सोयेगा| क्या हमने प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने के लिए सारे जरुरी कदम उठाये हैं, कानून बनाना आसान है, उन्हें व्यावहारिक कौन बनाएगा? खैर मेरे पास तब उस प्रश्न का उत्तर नहीं था, आज भी नहीं है, वो दोस्त शायद ज्यादा व्यावहारिक था , मैं कुछ ज्यादा ही नीतियाँ पढ़ चुका हूँ जिनकी कोई उपयोगिता नहीं थी| किसी ने सही कहा है 'भूखे पेट भजन नहीं होता’| उस बच्चे की शायद यही किस्मत थी| हम अभी भी तैयार नहीं हैं , शिक्षा के मौलिक अधिकार अभी भी कागज पे ही है शायद| अंतरद्वंद की उधेड़बुन में लगा हुआ था|

बहुतों को शिक्षा मिलती ही नहीं है , कुछ को मिलती है लेकिन उसका स्तर नहीं है , और कुछ खुशनसीब जो अपनी प्रतिभा या जुगाड़ लगा के देश के बेहतरीन शिक्षा संस्थानों में पहुँच भी जाते हैं तों उन्हें जो मिलता है उसकी उपयोगिता पे प्रश्न चिन्ह बना हुआ है ? इसके अलावा हम सब परिवार में सीखी संस्कारों के नाम पर दी हुई गुण जिनमे बहुत अच्छे गुण के साथ कुछ कुरीतियाँ भी शामिल है , जिन्हें हम संस्कार ही समझते हैं और जो जिंदगी भर हमारी सोच पर हावी रहते हैं|

अगर आप युवा है, अगर आप नयी विचारधारा के हैं तो फिर अस्पृश्यता कैसी, इंसानों से भाईचारा ठीक है , लेकिन इस देश की तकदीर समझने वाली राजनीति से क्यों मुंह मोडना, ये देश आपका है , ये लोग आपके हैं , युग युगांतर से युवाओं ने ही परिवर्तन लाया है फिर आप किसी और की तरफ देख कर आसरा क्यों लगाते हैं, भारत को सिर्फ अभियंताओं, चिकित्सकों और नौकरशाहों की ही नहीं बल्कि प्रतिभाशाली और ईमानदार राजनेताओं की भी जरुरत है| देश के महत्वपूर्ण निर्णय लेने की जिम्मेदारी सिर्फ कुछ परिवारों वालों को ही क्यों|

हम सब कुंठित है, सब दुखी हैं, पर आशा नहीं खोयी हमने अभी तक| हमारी हालत भी उन हनुमान की तरह है जिन्हें जरुरत है कोई आ के याद दिलाये कि इन समस्याओं का निवारण भी हम युवायों से ही आएगा| जहाँ इतनी निराशाएं हैं वहीँ कई लोग लगे हुएं हैं समाज को बेहतर बनाने में|

स्थिति बेहद गंभीर है, चिंता जनक है पर युवाओं में आशा भी है|

आज फिर सूरज की तलाश में भटक सा गया था वो
अनभिज्ञ का अहंकार एक काले छिद्र सा तो है यूँ तो
आकाशगंगाओं की रौशनी कम पड़ जाती है जिस अनंत घनत्व में
जाने कितने 'संदीप' लगे थे फिर भी उस स्याह में उजाला लाने में|

कभी ना कभी, एक आत्ममंथन करना है, खुद को, समाज को, राष्ट्र को!

image courtesy: google.com

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

बस यूँ ही २२

आज फिर सूरज की तलाश में भटक सा गया था वो 
अनभिज्ञ का अहंकार एक काले छिद्र सा तो है यूँ  तो
आकाशगंगाओं की रौशनी कम पड़ जाती है जिस अनंत घनत्व में
जाने कितने 'संदीप' लगे थे फिर भी उस स्याह में उजाला लाने में

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

खेल का तमाशा



बात शुरू होती है ८० के दशक के अंतिम वर्षों से| घर में नया नया टी वी आया था, श्वेत-श्याम| मुझे भी नयी नयी समझ आयी थी, थोड़ी थोड़ी ही सही , कुछ ढाई-तीन साल का शैशव ही था तब तक | घर में सबसे छोटा था मैं , मुझसे भी छोटा और दुलारा हो गया था टी वी| तब तक बड़े भाई बहन टी वी देखने दूसरों के घर जाते थे , या यूँ कहें इस छोटे से कस्बे जैसे शहर के इस मोहल्ले के सारे लोग उनके घर ही जाते थे, जहाँ उनके घर के बच्चे इठलाते रहते थे| हमारे घर मोहल्ले का दूसरा टी वी आया था , इसमें शटर (shutter) नहीं था यानी कोई चाह के भी टी वी बंद नहीं कर सकता , ऐसा लगता था | टी वी चलता गया, रामायण, बुनियाद, फौजी जैसे सीरियल जो उस समय सिर्फ चलचित्र का आभास कराते थे , जो मेरी समझ से परे थे|

दूरदर्शन का एक चैनल जिसपर कभी कभी क्रिकेट मैच भी आता था | मैदान में कुछ लोग सफ़ेद पोशाक पहने आगे पीछे दौड रहे होते थे उनमे से दो के हाथ में सपाट डंडे, और उन्होंने रक्षा के लिए सुरक्षा वस्त्र भी पहने होते थे, समझ में नहीं आता था जिसके हाथ में हथियार वही रक्षा की मांग करता है, बड़े हो समझ में आया कि ऐसा भी होता है |

कभी कभी १ दिन में खत्म कभी ५ दिन तक चलता रहे | पिता जी बताते रहे की क्रिकेट २ प्रकार का होता है, तभी एक छोटा सा बच्चा जो यूँ तो उम्र में मुझसे काफी बड़ा था लेकिन टीम सबसे छोटा होने की वजह से मुझे उससे अपनापन सा हो गया था, उसका नाम था सचिन रमेश तेंदुलकर, लोग कह रहे थे की ये गावस्कर से भी बड़ा खिलाडी बनेगा | खैर धीरे धीरे हम दोनों बड़े होते गए, क्रिकेट खेलना उसकी और देखना मेरी जिंदगी का एक अभिन्य अंग बन चुका था, बहुत सारे लोग मेरे जैसे थे, कुछ ऐसे भी थे जिन्हें क्रिकेट पसंद भी नहीं था, लेकिन कम ही थे जिनके लिए क्रिकेट के बारे में बात करना पागलपन की हद तक का जुनून था |

टीवी बड़ा हो चुका था, रंगीन भी , दीवानगी भी कई गुना बढ़ चुकी थी , सचिन के साथ रमण, अनिल , अजहर , कपिल , मनोज , अजय , किरण, श्रीनाथ , के साथ बाकी टीमों के खिलाडियों के नाम भी याद हो चले थे, डेविड बून , इमरान खान , वसीम अकरम , फ्लोवेर बंधू , केपलर वेसल्स , लारा, हूपर के नाम पड़ोसियों जैसे अपने लगते थे| कई लोग पिता जी को बोलते, बाबु साहब क्या  लड़का बिगाड़ रहे हैं, क्रिकेट मत दिखने दीजिए ये सब पढ़ने लिखने के दिन हैं|  


अभी भी कपिल देव की वो वर्ल्ड कप के साथ पुरानी 25 जून 1983 की तस्वीर दिल और दिमाग का खूबसूरत हिस्सा थी|

दीवानगी सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं थी, क्रिकेट के नियम , एक ओवर में कितने बाउंसर फेंक सकते हैं ,  बैट के लम्बाई चौड़ाई की सीमा, बौल के आकार, खिलाड़ियों के बैट के वजन , क्षेत्ररक्षण के जगहों के नाम, डकवथ लेविस नियम और पता नहीं क्या क्या , अपने आप में शोध के विषय थें|               

बहुत लोग क्रिकेट नहीं देखते थे, या यूँ कहें उन्हें समझता नहीं था| अजी कहिये की मंद बुद्धि होते थे, इतने पेचीदा नियमों को समझने की औकात नहीं थी उनकी|

कुछ लोग 5-5 ओवर वाले 6 ए साइड क्रिकेट ले आए, इसकी गति तेज जरुर थे रन भी बनते थे लेकिन एक सच्चे क्रिकेट प्रेमी के रोमांच को संतोष नहीं दे पाता था |

आखिर औसत लोग 1-2 घंटे में खेल खत्म करवा के घर जाना चाहते थे , अब इतनी निष्ठा तो एक सच्चे खेल प्रेमी में ही हो सकती है की 5 दिन लगे रहे | हम उन औसत दर्जो वालों को हीन भावना से देखते रहे |

तब तक किसी औसत दर्जे वाले ने टी20 का प्रचालन कर दिया , शुरुआत में तो भारत वर्ष ने इसका खूब विरोध किया लेकिन फिर इधर भी आई पी एल का बुखार लग गया |

जाहिर है हम जैसे क्रिकेट प्रेमियों को बहुत ठेस पहुची  थी , नौटंकी को भी कही खेल कहा गया है क्या ?

कहा जाने लगा कि छोटे खिलाडियों को फायेदा होगा, लेकिन खिलाडियों की नीलामी होने लगी, खिलाडियों से ज्यादा पैसे मालिकों को मिलने लगे| जी नहीं मुझे कोई समस्या नहीं थी| हर कामयाब चीज की गुणवत्ता गिरा व्यापारीकरण और बाज़ारीकरण होना तो लाजिमी है| क्रिकेट के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा था|

एक बाज़ार बन चुका था, जिन्हें कुछ नहीं समझ आता वो भी क्षेत्रीयकरण की भाषा समझने लगे, किसी को शाहरुख खान, किसी को प्रीती जिंटा, किसी को शिल्पा शेट्टी, तो कही भाड़े पे आए अक्षय , कटरीना , दीपिका| बड़े बड़े व्यापारियों के बेटे बेटी भी सेलेब्रिटी बनने लगे थे| चीअर गर्ल लोगों के वार्तालापों का विषय बनने लगी थीं, खेल कहीं पीछे छुट चुका था| लोगों की बातचीत से समझ पाता था कि वो अपना ज्ञान दिखा रहे थे वो खिलाडियों के वस्त्र से लेकर लिपस्टिक के रंग तक था| लोग जो कभी हमारी बात सुन हीन भावना से ग्रसित रहते थे एकाएक नये नये ज्ञान ले के चल पड़े थे |

आई पी एल देखने का मन नहीं करता था, कईयों ने पूछा तुम तो 5 दिन का नीरस मैच भी नहीं छोड़ते थे फिर इतना रोचक आई पी एल क्यों नहीं देख रहे , क्रिकेट से दिल भर गया क्या | मैंने कहा क्रिकेट से तो प्यार अब भी बेइंतहां है लेकिन अभी क्रिकेट कहां हो रहा है?

यहाँ तो तमाशा हो रहा है! 

देखते रहिये| खैर ये मेरी राय है आप देखिये: क्रिकेट हो या तमाशा मनोरंजन तो होगा ही|

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