शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

गरीबी


 जिंदगी की एक नई पगडण्डी मिली तो वो खुशी मना रहे थे , खेतों के बंटवारे में जाने कितनी ही ज़मीन परती हो चली थी , जहाँ कभी लहलहराते फसल दिखते थे, मेरे परदादा और उनके समकालीनों के हर उन खेत के कई हिस्से हो चुके हैं , पता नहीं कौन सा किसका है , बैलों और हल की जगह ट्रेक्टरों ने ले लिया है और इंसान से इंसानियत छिन सी गयी है

लाल बहादुर के किसान की जय तो बोला जाता है लेकिन उसका सर भी जवानों के सर की तरह काटा जा रहा है , फर्क है कि काटने वाले अपनों के भेष में ही हैं, तो शिकायत किससे करें

पता नहीं कुछ लोगो ने पहले ही कैसे भांप लिया था जो खेती छोड़ शहरो के तरफ पलायन कर चुके थे , एक नया तबका पैदा हो गया था , जिसे शहरी गरीब कहा जाने लगा था , उनकी हालत शायद ग्रामीणों से भी ज्यादा खराब है| सुविधाएँ न होना एक बात है और सामने हो के न मिलना दूसरी बात , पता नहीं अपने इस अभाव , अपने इस बेचारेपन को कैसे समझा पाते होंगे अपने बच्चों को| शायद झूठमूठ के डांटने की कोशिश, जिसमें समझ कम, झल्लाहट ज्यादा हो| काश वो मासूम बच्चे समझ पाते अपने माता पिता की मज़बूरी को|

बात हो रही है मूलभूत सुविधाओ के वितरण की , जब भी हम इन आवश्कताओं के वितरण की समानान्तर प्रणाली खोलते हैं, हम गरीबो के शोषण की एक और नींव रख देते हैं| प्राइवेट स्कूल,  सरकारी स्कूल का बोझ कम करने की बजाये उन्हें बेमाने साबित करने लगते हैं , सरकारी स्कूल भी जिम्मेदारियों से मुक्त हो चलते हैं | बिसलेरी / किन्लें का पानी, नगर पालिका को बेहतर पेयजल न उपलब्ध कराने की ग्लानी से मुक्त कर देता है| कार की उपलब्धता , सरकारी बसों और ट्रेनों के रूट और उनके ऊपर दबाव कम करने लगती है| गिनने बैठे तो यही रह जायें| मूलभूत सुविधाओं का ये हाल तो निजी चैनलों के कारण दूरदर्शन के हालात का यहाँ जायेजा लेना बेमानी होगा| खैर होता ये है कि जो लोग प्राइवेट स्कूल , बिसलेरी और कार नहीं रख पाते वो शोषित होने लगते हैं , उन्हें उनकी गरीबी का अहसास दिलाया जाता है, बार बार | 

किसी ने सिखाया था, बचपन में, भारत में लोकतंत्र है , और हरेक वर्ग का प्रतिधिनित्व होता है | मुझे आज कल ये दुनिया का सबसे हास्यास्पद किस्सा लगता है| आज कल हालात ऐसे हैं, सरकार के लोगों का प्रतिधिनित्व समाज के हर तबके, जाति और जनजातिओं में तो है, लेकिन समाज के हर तबके , जाति और जनजातिओं का प्रतिधिनित्व सरकार में कतई नहीं है , आर्थिक रूप से प्रतिनिधि चुनना तो बहुत दूर की बात है | 

होता यह है कि लोग जिनको अपना प्रतिनिधि चुनते हैं वो असल में उनके साथ जन्मे अगडे होते हैं, जन्म से ना सही, कर्म से मनुवादी , जिन्हें पता है जरुरी सिर्फ वो और उनके वंशज, बाकी सारे गैर जरुरी| अगर ऐसा न होता तो स्वकथित दलित और जनजाति वालों में थोड़ी सी लज्जा जरुर रहती कि अपने वर्ग का जायेजा ले लें | आई आई टी में आरक्षण दिलवा कर समाज का उत्थान करने वालों की सोच कितनी निजी और संकीर्ण है, कहने की जरुरत नहीं है | बात आ कर वहीँ अटकती है, मूलभूत सुविधाएँ और समानान्तर तरीके जिन्हें बनाकर हम अपना आधार ही खोखला कर रहे हैं, लोग हर जगह को पैसे उगाने के उद्गम श्रोत जैसा देखने लगे हैं , जो पढ़ लिख गए, वो अपने समाज का उत्थान करने के बजाये उन्हें बरगला कर नेता बन बैठे हैं | 

अलगाववाद का बीजारोपण किया जा रहा है , देशभक्ति को समाप्त कर एक नई चीज़ सिखाई जा रही है | गरीबी उन्मूलन हो ना हो, हाल ऐसे ही रहे और कुछ किया ना गया तो भारत जरुर टुकडों में बंट जायेगा| पैसा अंदर से आ रहा है या इसे प्रायोजित किया जा रहा है पश्चिम से या फिर हम खुद ही इतने बेवकूफ हों चले हैं पता नहीं |

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