आज कल ढेरन देशो में पत्ते
रंग बदल रहे हैं , खबसूरत होते हैं | विभिन्न प्रकार के रंग , लाल, पीला, गुलाबी|
इन्हें देख कर हरा रंग याद आता है , वसंत याद आता है , और याद आती है ऋतु पतझड़ की
| दीये का फड़फड़ना बुझने से पहले; खूबसूरत कैसे हो सकता है , क्या मौत भी कभी
खूबसूरत होती है , शायद होती होगी तभी तो लाखो सैलानी देखने आते हैं|
विज्ञान का छात्र रहा हूं
वो कहता है , रंग असल में होता ही नही , सारे रंग आँखों में होते है; दर्शन भी
तो यही कहता है “Beauty lies in
the Eyes of the beholder”. रंग रौशनी के विभिन्य तरंगदैर्ध्य की तरह एक छलावा ही तो है , जैसे गिरगिट देता
है सबको | हर पशु हर रंग को अलग देखता है और वही समझता है जो उसे दिखता है , यह हर
चीज कों अपने दृष्टिकोण से देखना सिर्फ रंगों तक ही सीमित नही है| यह मानसिकता
कही आगे तक जाती है| हमारे दिनचर्या के
हरेक व्यवहार में| तो क्या यह छलावा काफी नही हैं, फिर यह बाहरी दिखावा और कृत्रिम
रंग, आंतरिक खुशी क्यों और कैसे दे जाते हैं|
जिंदगी भी तो १ साल की तरह
ही है , इसका भी पतझड़ आना ही है , कुछ पत्ते लाल पीले हो पतझड़ में गिरते हैं वही कुछ
जेठ के दुपहरी नही सह पते , कुछ सावन भादो की बारिश में गिर जाते हैं |
हमारे देश में यह देखने को
कम ही मिलता है| यहाँ के पत्ते भी भ्रष्टाचार की तरह सदाबहार होते हैं| कुछ जो गिरते
हैं, रंग बदलते हैं उन्हें या तो हम देख नही पाए या देख के अनदेखा कर देते हैं, खूबसूरत जो नही लगते !
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