“पांच
सात अमीरजादे, एक बेबस लड़की को जबरन पकड़ लेते हैं , फिर उसका बलात्कार , कोई उनका
साथ नहीं देता, लड़की या तो आत्महत्या कर लेती है या लाश बन के जीती है, अगर आवाज
उठाई तो उसकी इज्जत अदालत में फिर से लुटी जायेगी| पुलिस अमीरजादो के बाप के पैसे
के नीचे दब जाती है| लड़की का बेबस पिता समझौता कर लेता है और लड़की अगर जिन्दा हुई तो उसको भी
कर देता है| शायद एक वकील गोविन्द , एक पुलिस इंस्पेक्टर तेजस्विनी, का जमीर जिंदा
रहता है तो वो विद्रोह करते हैं सिस्टम के खिलाफ , लेकिन उनका साथ भुक्तभोगी भी
नहीं देते|”
पता
नहीं कितनी बार चलचित्रों में ये देखा होगा | सब रोए , चिंता व्यतीत की , ताली
बजायी , खुश हो गए कि सब ठीक हो गया अंत में , लेकिन अगर इसके बदले ये हुआ तो ?
“पांच
सात गरीब प्यादे , एक अमीर लड़की से मिलते हैं उसकी मदत लेते हैं उसका ही खाना खाते हैं, फिर
जब उसके पैसे छीन लेते हैं, उसका बलात्कार
कर देते हैं , लड़की का अमीर बाप क्या करेगा वो बोलता है जो लड़के हैं उन्होंने कुछ
किया ही नहीं| लड़की को वापस बुला लो घर| ये लड़के तो हमारे मोहल्ले के शरीफ बच्चे
हैं| फिर वो अपनी दूसरी बेटे-बेटियों को भी भेजता है उनके पास”
ज़ाहिर है या तो आपको भरोसा नहीं हो रहा होगा या फिर ये बाप बेहद ही गैर जिम्मेदार
और बेवकूफ किस्म का लग रहा होगा या ये कहानी बेहूदा| खैर ये कहानी सच नहीं हो सकती ... तो यूँ सुनिए
"जी
एम आर ने मालदीव में एयर पोर्ट बनाया , सरकार बदल गयी , नयी सरकार ने दूध में से
मक्खी निकल फेंक दिया , अदना सा देश , जिसको सहायता देने में भारत अग्रणी है उसने
ऐसा किया | फिर बोला जाता है हम लाबी नहीं करते हम दूसरे देशो के तरह अपने सहायता
के बदले अपनी कंपनी की सुरक्षा नहीं चाहते, हम तो जी बस अच्छे कहलाते रहे चाहे
हमें तमाचा मारते रहो|"
जी
न तो मेरा जी एम आर से कुछ लेना देना है न कोई विशेष सहानुभूति है न दुश्मनी, लेकिन मेरा
इशारा एक घटना मात्र की तरफ नहीं है
ये
कुछ नया नहीं है , श्रीलंका में ऑपरेशन पवन के बाद राजीव गाँधी की मृत्यु और
ऑपरेशन विजय के बाद बंगलादेश का आँख दिखाना ज्यादा पुराना नहीं है | शिमला शिखर वार्ता
किसे याद नहीं ? लाहोर कराची दे आये लेकिन गिलगित बल्तिस्तान न हमने मांगा न मिला
उल्टा श्रीनगर भी जाते जाते बचा है | अगर वो धूमिल पड़ गयी हों तो कसाब साहब और अफजल गुरु तो तो याद होंगे ,
दो चार लोगो को कसाब बच्चा लग रहा था |
हम
निर्णय नहीं ले पाते , हम निर्णय लेना ही नहीं चाहते , हमें लगता है निर्णय न लेना
भी एक निर्णय है | जनता बेवकूफ है उन्हें ड्रामा दिखाते रहो |
क्या
अहिंसा नपुंसकता को कहते हैं ? महात्मा ने कभी नहीं बोला ये, हाँ अपितु गाँधी जरुर बोलते
आ रहे है कई सालो से |
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