आज एक लड़की चली
गयी है , जाते जाते जाने कितने
सवाल छोड़ गयी जो पता नहीं कब तक जवाब ढूंडते रहेंगे| शायद कंस के हाथों मरने वाली नंद यशोदा
की असल पुत्री रूपी देवी का रूप होगी| लेकिन उस देवी ने तो कृष्ण छोड़ दिया था
, अभी कृष्ण हम हैं , हमपे छोड़ गयी वो
दुनिया |
सवाल सिर्फ एक
घटना का नहीं है, सवाल है मानसिकता का, जो अंतर पैदा करती है| भ्रूण हत्या या दहेज
हत्या| इनके अनगिनत उदाहरण आपको अगल बगल झांकने पर मिल जाते हैं| हत्या तो चरम सीमा है
, और न जाने कितने उदाहरण जो वहां तक न पहुच पाए हों पर उनकी वीभत्सता शायद ही कुछ
कम हो| हम गिनना नहीं चाहते न|
जो भ्रूण हत्या
से बच गयी वो हमेशा उपेक्षा का शिकार होती है नैहर में, फिर ससुराल में दहेज हत्या
होने तक| जो उससे भी बच गयी वो तो फूटी किस्मत ले कर ही आई थी , फिर उपेक्षा सहो जिंदगी
भर |
शहर में जब आप
जींस पहन के घूमते रहते हैं , लेकिन वहीँ अगर एक लड़की को जींस पहने हुए या बाइक चलाते देख कर खुला हुआ आपका मुह भी कही न
कही इस मानसिकता को आगे बढाता है, अगली पीढ़ी तक | हम समझ न पाते हों शायद , या दिखावा
करते हों न समझने का|
क्या हम सभ्य हैं?
मुझे तो बचपन में पढ़ी ये पंक्तियाँ याद आती हैं आज के परिपेक्ष में सटीक बैठती हैं
“झड गयी पूंछ,
रोमांत झडे, पशुता का झडना बाकी है
बाहर बाहर तन
संवर चुका, मन अभी संवरना बाकी है|”
ऐसा नहीं है कि
सब ऐसे हैं , लेकिन कुछ खराब फल पूरी टोकरी को खराब कर देते हैं | इनमे कुछ कमल भी
होते हैं जो कोशिश करते रहते हैं अपने तरीके से, अकेले, एकदम अकेले|
दक्षिणी रमना रोड
पर डॉ अभय के पास अल्ट्रासाउंड के मशीन सालों से है , लेकिन कानून आने से बहुत
पहले भी वो कभी लिंग निर्धारण नहीं करते थे, जो जिद करते उनसे मशीन खराब होने के
बहाने बना देते| बाकी आ गए, चालु कर दिया
पर उन्होंने नहीं किया| ऐसे कर्मठ और सिद्धांतों वाले डॉक्टर जो सिस्टम के खिलाफ ,
धारा के विरुद्ध चले जा रहे है अपना सच लेकर, अकेले, सही में सम्मान योग्य हैं,
हमारा सलाम है उनको |
ऐसे और भी है जो
लड़ रहे हैं| कहीं न कहीं हमें संकीर्ण मानसिकता बदलनी होगी , पढाई सिर्फ किताबों में
नहीं जिंदगी जीने वाली सलीको में भी है| किताबे पढ़ के दहेज का मुंह बा (खोल) दिया
तो ऐसे किताबी ज्ञान का फायेदा क्या?
कुछ हैं जो समझते
हैं , कि सही मायने में शिक्षा और बहु आयामी सोच ही इन समस्याओ के हल की ओर बढ़ा सकती
है , वो लग गए है बच्चों को आगे बढ़ाने में , गांव गांव जा कर , मौका देने में नयी
पीढ़ी को , क्यों की हल वही से आना है | इसी दिशा में आरा की ‘यवनिका’ का बाल
महोत्सव का पहल बेहद प्रशंसनीय है|
समय आ गया की एक नया नजरिया
आप और हम भी बदलें, नहीं तो कही पीछे रह जाएँ, घर के लोग, आखिर आपके बच्चों को
शिक्षा आपको ही तो देनी है| बदलना
है मुझ को, समाज बहुत सारे मुझसे ही तो बनता है|
आज के समाज में जरुरत है मसीहा की| राजा राम मोहन राय को फिर से बुलाओ , पडोसी के घर से नहीं , खुद के अंदर से बुलाओ|