बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं
पा रहा हूँ| कोई साहित्य का ज्ञाता होता तो शायद इसका भी कारण ढूंड लेता या
राजनीतिज्ञ होता तो बना लेता, किसी अंतर्द्वंद या किसी खुलबुलाहत को कारण कह देता|
खैर ना उतनी समझ न काबिलियत न ओहदा| हर आम
आदमी की तरह अपने बिन सुलझे सवालों के साथ जीने की कोशिश में लगा हूँ|
भगवान के अस्तित्व को
ढूंडना, चाँद और मंगल पे जाना, प्रकृति के हर नियम के खिलाफ एक मानव का हु-ब-हु प्रतिरूप
बनाने की कोशिश हम दशकों से कर रहे है| शांति देता है हमें, कुछ ऐसे उलझे सवालों
के उत्तर दुंडना जो जरुरी लग तो सकता है,
शायद अगहन और पूस की रातों में फूटपाथ पे बिना कम्बल भूखे पेट सोने वाले उस भिखारी
को भी जिसे यह सोचना पाप लगता है की एक छत होती| आखिर रात को अनगिनत तारे और ग्रह
और उस पर गए लोगो को देखना भी तो जरुरी है|
कई बार जो हमें नहीं दिख
पता उसे हमें गौण समझते हैं, और कभी जिन्हें मुद्दों हम गौण बनाना चाहते हैं
उन्हें आम लोगो को देखने नहीं देते|
राजनीतिक सोच और राजनीति
बहुत ही संकीर्ण हो चली हैं, विकास प्राथिमकता नहीं रहा है , शायद कुछ परिवारों का
चाँद और मंगल पे जाना ही प्राथिमकता हो चला है |
हो भी क्यों न, सदियों की
परिश्रम के बाद जिस अछूत प्रथा को हम समाज के बीच से लोगो के मन के अंदर दबा पाए
है, उसी को हम फिर से बढावा दे रहे हैं, पहले जाति के नाम पे अब किसी खास पेशे
के नाम पे|
क्या सबसे ऊपर रहने वाले और
सबके भाग्य का फैसला लेने वाले इतने अछूत है कि समाज के गुंडे बदमाश और उठाईगीरों
की मंजिल बने| क्या कुछ अच्छे लोग नहीं जा पायें, दोष शिक्षा प्रणाली का है हमें
बनाया ही जा रहा है मजदुर बनने के लिए, न दिमाग लगाओ न चलाओ बस हुक्म बजाते रहो|
चिंतन और आत्मचिंतन के लिए
कोई जगह नहीं है, सम्मान पूर्वक भरे पेट रह कर तो कतई नहीं|
समाज के चौथे स्तंभ के
स्याह हो चले हालात के बारे में अब तो लिखना
भी स्याही बर्बाद करना लगता है, संगणक(computer) पर मुफ्त की स्याही भी|
आज कल अपशब्दों का फैशन सा चल पड़ा है| आइना देखना तो आता नहीं है, लेकिन हम अपशब्दो का इस्तेमाल कर मन ठंडा
कर लेते हैं ताकि दो शब्द बोलने की जरुरत न बचे|
लोगो को लूर (गुर, skills) सीखने के जरुरत न महसूस होती है न महसूस कराई जाती है| कही
अपने जरूरतों और सुविधाओं के स्वरुप हम एक सोच बना लेते हैं जो हमारे लिए अच्छा
हो, फिर किसी सेल्समैन के तरह बेचने चल पड़ते हैं उस सोच को, कोई अरस्तु बेच रहा
है, कोई सुकरात , कोई राम, तो कोई मोहम्मद, कोई लेनिन मार्क्स को बेच रहा है तो
कोई जय प्रकाश नारायण, सोच बेच रहे हैं सब| सोच धातु से भी ज्यादा आघातवर्ध और
तन्य होती है, सोच को मरोड़ के अपने स्वरुप बना दिया जाता है, समाजवाद समाज के
किसी वर्ग के प्रति उतना उदासीन कैसे हो सकता है ये समझ में नहीं आता|
वामपंथियों को लगता है किसी
भी सवाल का उत्तर भला दक्षिण में कैसे मिल सकता है!
भले ही हम वर्षों तक
स्वदेशी आंदोलन करते रहे हों, लेकिन आज भी राजा राम मोहन राय और भगत सिंह की
बजाये हमें मार्क्स और ची गुइवारा (Che Guevara) ज्यादा बड़े और गहरे छाप छोड़ने वाले देखते हैं|
भीष्म साहनी के “मेड इन
इटली” याद आ जाता है, की कैसे कहानी के मुख्य पात्र को इटली चमड़े का अच्छा सा बैग
बेहूदा लगने लगा था मेड इन इंडिया देख कर, फिर वापस अच्छा लगने लगा जब उसका लेबल
बदल दिया दुकानदार ने, जब उन्होंने
कहानी लिखी होगी तभी शायद उन्होंने भी नहीं सोच होगा कि हमारे नेता कहानी का
मतलब समझने की बजाये उसके शीर्षक का शाब्दिक अर्थ को इतनी गंभीरता से ले पुरे देश
का बागडोर सौंप देंगे| शायद उन्हें इल्म हों चला था, वो महान लेखक थे
दूरदर्शी थे, लिख के चले गए वो, हम ही मतलब समझने में ज़माने बीता चुके हैं|
आज कल ए के ४७ दिखा अहिंसा
का पाठ पढाया जाता है| ए के ४७ लेके अहिंसा का पाठ तो पढाया जा सकता है, लेकिन उसका असर कितने
दिन रहेगा ये तो भगवान ही जाने | हम सब उदासीन हों चले है, मुझे कुछ पुरानी पंक्तिया
याद आ रही है|
“भगत सबको चाहिए, मगर घर पडोसी का हो,
अपने बेटे बारी आई तो तो बोला छोड़ ये सब, करनी है तुझे नौकरी|
सतेन्द्र के लाश पे दिए हमने दीये जला दिए,
जिस राह पे वो चला था उसमे नहीं आई अभी तक रौशनी|”
“भगत सबको चाहिए, मगर घर पडोसी का हो,
अपने बेटे बारी आई तो तो बोला छोड़ ये सब, करनी है तुझे नौकरी|
सतेन्द्र के लाश पे दिए हमने दीये जला दिए,
जिस राह पे वो चला था उसमे नहीं आई अभी तक रौशनी|”
एकदम सही कहा है किसी ने की
कीचड़ को साफ़ करना है तो कीचड़ में उतरना पड़ता है, लेकिन उतर कर कीचड़ साफ़ न कर अगर
आप कमल उखाडने लगोगे तो कीचड़ की बदबू और बढेगी ही| लोहा लोहे को काटता है बस उसका
भी ग्रेड अलग होता है, समाज को बेवकूफ बनाने वालों से बचाने के लिए आप अच्छी नीयत
के साथ लोगो को बेवकूफ बनाने के रणनीति बनाएंगे तो किसी दिन अपने को भी रेखा की
दूसरी ओर पाने पर अचंभित न हो जाना| जनता का क्या है , हम तो तो आदत है पदचिन्हों
पर चलने की कभी खडाऊं, कभी गेरुवा, कभी खादी तो कभी सूट बूट के पीछे हों चलेंगे,
देश तो आपको चलाना है, स्विस बैंक भी|